बादशाहों का बादशाह
तानपूरे पर तानसेन की अंगुलियां थिरकीं और उसने गाना शुरू किया। लगा जैसे चारों ओर जादू-सा छा रहा है। सामने बैठे अकबर के शरीर में सिहरन होने लगी। श्रोता मंत्रमुग्ध। गाना ख़त्म होने पर मुग़ल सम्राट ने पुछा, ‘तानसेन! क्या तुमसे भी कोई अच्छा गा सकता है?’ तानसेन बोला, ‘हां, जहांपनाह! मैं तो अपने गुरुजी के चरणों की धूल भी नहीं हूं।’ सम्राट बोले, ‘हम एक दिन उनका भी संगीत सुनना चाहते हैं।’ चिंतित हो तानसेन ने कहा, ‘पर वे किसी को सुनाते नहीं जहांपनाह।’ पर अकबर के हृदय में गुरुदेव से संगीत सुनने की तीव्र लालसा जाग चुकी थी। तानसेन ने एक तरकीब सोची।
वह सम्राट के साथ गुरु महाराज की तपोभूमि की ओर चला। अकबर वेश बदलकर नंगे पांव साथ आए थे।
तानसेन ने उन्हें दरख्तों की आड़ में छिपकर बैठने की सलाह दी। सामने पर्णकुटी में स्वामी हरिदास समाधिस्थ थे।
तानसेन ने स्वामी जी के पैर छुए। हरिदास की आंखें खुलीं।उन्होंने पूछा, ‘कहो स्वस्थ सानंद हो न? किस उद्देश्य से आना हुआ?’ तानसेन बोला, ‘जी, एक राग विशेष आपने बतलाया था, उसे मैं कुछ भूल गया हूं।’
हरिदास बोले, ‘कोई बात नहीं। मैं अभी बतला देता हूं। पर पहले तुम गाओ। देखूं तो तुम कहां भूले हो?’ तानसेन ने तानपुरा उठाया और जानबूझकर गलत राग अलापने लगा।
हरिदास ने रोका और तानपुरा हाथों में ले लिया। फिर उंगलियां फिरने लगीं। तारों में कंपन छाने लगा। महसूस हुआ जैसे आसपास सब कुछ झूम रहा हो। तानसेन उठकर सम्राट के पास पहुंचा।
देखा, अकबर मूर्च्छित पड़े थे। पास ही स्वच्छ सरोवर था। वह पत्तों के दाने में जल भरकर लाया और कुछ छींटे बादशाह पर डाले। बादशाह होश में आ गए, जैसे किसी सुहावने सपने से जागे हों।
उन्होंने पूछा, ‘तुम ऐसा क्यों नहीं गा सकते तानसेन?’ तानसेन ने जवाब दिया, ‘मैं बादशाह को खुश करने के लिए गाता हूं, जहांपनाह। पर गुरुदेव उसे खुश करने के लिए गाते हैं जो बादशाहों का बादशाह है।’
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